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Saturday 15 September, 2007

साहित्य और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद : प्रो. चमनलाल गुप्त

हिंदी साहित्य चिंतन की परंपरा भारतीय चिंतन परंपरा का ही अंश है जो अत्यधिक समृध्द और प्राचीन है। भारत जैसी अविच्छिन्न साहित्यिक परंपरा कम ही राष्ट्रों के पास है। भारत के सांस्कृतिक प्रवाह से निरंतर पुष्ट होती हुई साहित्यधारा कभी विरल तो कभी विशाल नदी का रूप धारण कर भारतीय जनमानस को आप्लावित करती रही है। भारतीय संस्कृति प्राचीन, निरंतर प्रवाहशील, नित-नवीन और फिर भी सनातन रूप से विद्यमान रहनेवाली अद्भुत संस्कृति है। इस संस्कृति का बाह्य रूप स्थान समय और युगीन संदर्भों में बदलता रहा है, अपने को युगानुकूल एवं ग्राह्य बनाता रहा है। यही कारण है कि प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक प्रवाह ऊपर से बदलता रहा परंतु भीतर से वह शांत सुस्थिर रहा, अपने स्वरूप को बनाए रहा।

साहित्य और संस्कृति के विकास की दिशा और खोज का विषय एक ही है। साहित्य एक स्तर पर मनुष्य के ऐन्द्रिय बोध को संस्कारित एवं परिष्कृत करता है। उसे शब्द के भीतर छुपे सूक्ष्म भाव और अर्थ से ही परिचित नहीं करवाता, उसकी नाद शक्ति से आंदोलित भी करता है। साहित्य, भाषापरक अभिव्यक्ति है परंतु वह भाषेतर सूक्ष्म भावों और विचारों को व्यंजित करता है। संस्कृत साहित्य के महान विद्वान प्रोफेसर सिलवां लेवी ने भारत वर्ष की संपूर्ण चिंतन धारा को एक शब्द में समेटते हुए कहा है कि संपूर्ण साहित्य साधना का लक्ष्य है 'रस' की प्राप्ति। 'रस' जो शब्द और अर्थ के 'साहित्य' अर्थात् साथ-साथ रहने के भाव से जुड़ा है परंतु जिसे कहा नहीं जा सकता, अनुमित नहीं किया जा सकता, जो लक्षित भी नहीं होता बल्कि व्यंग्य होता है और समान हृदय वाले, अनुभवी सहृदय द्वारा ही ग्रहीत होता है। धर्म और अध्यात्म के क्षेत्र में जिसे सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्म कहा गया उसे ही साहित्य में रस कहकर उसकी प्रकृति 'ब्रह्मानंद सहोदर' स्वीकार की गई। मैक्समूलर ने भारतीय अध्यात्म साधना का लक्ष्य सच्चिदानंद स्वरूप परब्रह्म की प्राप्ति मानते हुए उसे सांसारिकता से परे अतीत अथवा वियाण्ड (Beyond) की खोज माना है। साहित्य और संस्कृति दोनों ही मनुष्य को जड़ से मुक्त कर चेतन की ओर ले जाते हैं, उसकी सुप्त चेतना को जागृत कर परम तत्व की ओर अग्रसर करते हैं। साहित्य और संस्कृति मनुष्य को बेहतर मनुष्य और बेहतर मनुष्य को देवत्व प्रदान करने का साधन है।

साहित्य और संस्कृति दोनों का संबंध किसी एक समाज से रहता है जो किसी भूखंड विशेष पर स्थिर रहता है। देश, देश में रहने वाले जन और उस जन के सामाजिक, आर्थिक जीवन से संस्कृति का स्वरूप निर्मित होता है। देश एक भौगोलिक इकाई है जिसका निर्माण प्राकृतिक तत्वों से होता है। पर्वत, नदियां, मरुस्थल अथवा घने वन आदि इसके निर्णायक होते हैं। राज्य एक प्रशासनिक इकाई है। एक देश में अनेक राज्यों का निर्माण्ा हो सकता है, होता है। देश के लिए भौगोलिक एकता और राज्य के लिए राजनीतिक, प्रशासनिक एकता अनिवार्य तत्व है। राष्ट्र इन दोनों की अपेक्षा अधिक व्यापक और सूक्ष्म इकाई है जिसका आधार सांस्कृतिक अथवा भू-सांस्कृतिक हुआ करता है। किसी विशेष भूखंड पर रहने वाले लोग अपने लौकिक और परलौकिक सुख और समृध्दि के लिए, जीवन यापन और मुक्ति साधना के लिए जो जीवन पध्दति, मूल्य चेतना, सौंदर्य बोध और चिंतन-मनन की प्रणालियां विकसित करते हैं वे ही उसकी संस्कृति के वाहक और परिचायक कहे जा सकते हैं। देश एक स्थूल एवं दृश्य इकाई है, राज्य एक प्रशासनिक परिकल्पना है, परंतु फिर भी उसकी निश्चित सीमाएं रहती हैं। राज्य, देश की अपेक्षा सूक्ष्म इकाई है। राष्ट्र, देश और राज्य की अपेक्षा अधिक सूक्ष्म एवं भावात्मक इकाई है। जिसका आधार मूलत: जन की सौंदर्य बोधात्म, भावात्म एवं वैचारिक एकता है जिसे संक्षेप में सांस्कृतिक एकता कह सकते हैं।

आज भी सुनने को मिल जाता है कि भारत राष्ट्र का निर्माण 1947 में हुआ था फिर हम राष्ट्र नहीं हैं बल्कि राष्ट्र बनने जा रहे हैं। (we are a nation in the making) यदि हम आजादी से पहले राष्ट्र नहीं थे तो क्या थे?

पश्चिम में राष्ट्र राज्य की कल्पना की गई और राजनीतिक इकाई राज्य को ही राष्ट्र का पर्याय मान लिया गया। 'संयुक्त राष्ट्र संघ' मूलत: 'संयुक्त राज्य संघ' है जिसमें संप्रभुता संपन्न अथवा स्वायत्ताशासी राज्य, सदस्यता ग्रहण कर सकते हैं। एक सोवियत रूस, राष्ट्र के रूप में उसका सदस्य था। सोवियत रूस के अनेक टुकड़े होकर स्वतंत्र राज्य बन गए और आज उनमें से अधिकतर संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्य बनकर राष्ट्र कहलाते हैं। इंडोनेशिया से तैमूर टूट कर नया राष्ट्र बन गया है। राष्ट्र केवल राजनीतिक इकाई नहीं हो सकता। भारत सदा से ही राजनीतिक रूप से बंटा रहा परंतु सांस्कृतिक दृष्टि से इसमें एकता रही है। सांस्कृतिक एकता ही युगों से हमारी एकता का आधार रही है। भारत एक राजनीतिक इकाई के रूप में मनु, रघु, राम, युधिष्ठिर, अशोक अथवा विक्रमादित्य जैसे कुछ एक चक्रवर्ती शासकों के काल में भले ही एक रहा हो परंतु अधिकांश समय अनेक गणों, राज्यों अथवा सियासतों में बंटा रहा जो आपस में प्राय: लड़ते-भिड़ते भी रहते थे। इस देश का साधारण जन सदा ही राजनीतिक सीमाओं के पार सोचता था क्योंकि उसके लिए संस्कृति ही राष्ट्र का आधार थी। किसी भी पुण्य कार्य के लिए शुध्द जल की प्राप्ति देश की सातों प्रमुख नदियों के जल को मिलाकर ही होती थी और वह गाता था -

'गंगे च यमुने चैव गोदावरि सरस्वती
नर्मदे सिंधु कावेरि जलेस्मिन सन्निधिं कुरू'॥

इसी प्रकार सात मोक्षदायक पुरियां, द्वादश ज्योतिर्लिंग, बावन शक्ति पीठ, चारधाम, चार महाकुंभ क्षेत्र, रामायण, महाभारत, श्रीमदभगवत जैसे ग्रंथ आदि हमारी एकता के मूलाधार थे। भारत की एकता और अखंडता का आधार सांस्कृतिक एकता रही है इसलिए यह स्वाभाविक है कि भारतीय राष्ट्रवाद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की संज्ञा दी जाए। हिंदुओं के लिए चारों धामों की यात्रा अर्थात् भारत भूमि की भारत माता की परिक्रमा पुण्यदायी और मोक्ष देने वाली मानी गई। यही हमारी राष्ट्रभक्ति है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विरोध छद्म धर्म निपरेक्षवादी और भौतिकवादी-साम्यवादी अपने-अपने कारणों अथवा स्वार्थों से करते हैं। भारत के सांस्कृतिक स्वरूप को समझने के पश्चात् यह स्पष्ट हो जाता है कि भारतीय संस्कृति निरंतर विकसनशील, बहुलवादी, उदार, विभिन्न मतों, पंथों, धर्मों, पूजा-पध्दतियों, जीवन-शैलियों, विचारधाराओं और आस्थाओं और विश्वासों को अपने में समेट कर चलने में समर्थ रही है। ऋग्वेद में कहा गया 'एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति' अर्थात् परमसत्ता एक ही है जिसे विद्वान विभिन्न नामों से पुकारते हैं। यही एकमात्र ऐसी संस्कृति है जो विभिन्न धर्मों को एक ही सत्य तक पहुंचने का मार्ग घोषित करती रही है। इसी संस्कृति में कहा गया 'अपनी भिन्न-भिन्न रूचि के अनुसार सीधे या टेढ़े मार्ग पर श्रध्दापूर्वक चले हुए सभी साधक, हे प्रभु, तुम तक उसी प्रकार पहुंचेंगे, जिस प्रकार उत्तार, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम किसी भी दिशा की ओर बहने वाली नदियां समुद्र तक पहुंच जाती हैं।' (शिवमहिम्नस्तोत्र) संत विनोबा भावे ने इसीलिए भारतीय संस्कृति को 'भी वाद' कहा था क्योंकि इसमें अपने मत के साथ दूसरों के मतों को भी स्वीकृति है। सभी धर्म और संस्कृतियां उनकी नजर में 'ही वाद' से ग्रस्त हैं अर्थात् वे अपने मार्ग के सिवा अन्य सभी मार्गों को व्यर्थ और गलत मानती हैं। जब कुछ धर्मनिरपेक्षवादी भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के विकास से अन्य पंथों, धर्मों अथवा संस्कृतियों के विनाश की आशंका जताते हैं तो वे भूल जाते हैं कि भारतीय संस्कृति के साथ-साथ इन सबका अस्तित्व इसी धरती पर सदियों से बना रहा है, बना रहेगा। भारतीय संस्कृति सहिष्णु भी है और गुणों को स्वीकारने वाली सारग्राही भी यही इसकी दीर्घजीविता का रहस्य भी है। साम्यवादी विचारक अपने भौतिकवादी दुराग्रहों के कारण संस्कृति के आदर्शपरक, आध्यात्मिक मूल्यों को अस्वीकार करते हुए भारतीय सांस्कृतिक चेतना को संकीर्ण सांप्रदायिक कहकर नकार देते हैं। भारत को वे राष्ट्र ही नहीं मानते। उनकी दृष्टि में संस्कृति सामाजिक-आर्थिक मूल से उपजी बाह्य रचना है जिसका जीवन मूलभूत भौतिक ढांचे अर्थात् उत्पादन के साधन और उत्पादन के संबंधों पर निर्भर करता है। भारतीय धर्म साधना उनके लिए आदिम युग की अज्ञता है और भारतीय सांस्कृतिक चिंतन का आध्यात्मिक अंश उन्हें निरर्थक प्रतीत होता है। जिस समाजवादी, भौतिकवादी संस्कृति पर वे गर्व करते थे उसके खंडहर पूरे पूर्वी युरोप और टूटे-बिखरे सोवियत गणराज्य में वे देख कर भी नहीं देख पा रहे। उनकी शुध्द भौतिकतावादी तथा कथित विज्ञान परक संस्कृति दो सौ वर्ष में ही भरभरा कर गिर पड़ी जबकि भारतीय संस्कृति सदियों से अपने स्वरूप को अक्षुण्ण रखते हुए और अपने बाहरी रूप को समय, स्थान और परिस्थिति के अनुरूप बदलते हुए आगे बढ़ती रही है। परम तत्व की खोज और उस सच्चिदानंद स्वरूप तक पहुंचने की ललक भारतीय संस्कृति के ऐन्द्रिय बोध को सूक्ष्म सौंदर्यबोध में बदलती रही, भावबोध को उदार विश्व-बंधुत्व का गीत सुनाती रही और बौध्दिक चिंतन-मनन को षडदर्शन और ज्ञान-विज्ञान की ऊंचाइयों से भी आगे ब्रह्मांड की सूक्ष्म एकता में बांधती रही। भारतीय धर्म-साधना मानववाद की साधना है जो मनुष्य को श्रेष्ठ मनुष्य बनाकर परम तत्व तक पहुंचाने का साधन बनती है, भारतीय सांस्कृतिक चिंतन, मनुष्य मात्र के उत्थान का चिंतन है। इसमें सांप्रदायिकता के लिए कोई स्थान हो ही नहीं सकता। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का विरोधी एक तीसरा वर्ग भी है जो पश्चिम की चिंतन परंपरा से अभिभूत है। पश्चिमी राजनीतिक चिंतन में राष्ट्र-राज्य' की परिकल्पना फलीभूत हुई इसलिए राष्ट्र एक राजनीतिक इकाई ही माना गया। हिटलर, मुसोलिनी जैसे राष्ट्रवादी नायकों के उभरने से राजनीतिक राष्ट्रवाद का विस्तारवादी, फासीवादी चेहरा सामने आया। पश्चिम में राष्ट्रवाद युध्द और हिंसा के साथ-साथ कट्टरवाद का पर्याय बन गया। 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' में ये लोग सांस्कृतिक कट्टरवाद अथवा आधिपत्य जमाने की लालसा देखते हैं और इसका विरोध करते हैं। भारतीय सांस्कृतिक चेतना जिन उदार मानवीय और सार्वभौम तत्वों से निर्मित हुई है उसमें सार्वभौमिक आकर्षण मौजूद है परंतु भारतीय संस्कृति का अतीत साक्षी है कि इसका प्रचार कही भी, कभी भी आग और तलवार के बल पर नहीं किया गया।

भारतीय साहित्य अपने सांस्कृतिक मूलाधार का ऋणी रहा है। 'हिंदी साहित्य की भूमिका' पुस्तक में पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी ने हिंदी साहित्य पर प्राचीन संस्कृत साहित्य के प्रभाव को रेखांकित करते हुए महाभारत और रामायण को असंख्य महाकाव्यों, उपन्यासों, नाटकों, कहानियों का प्रेरक सिध्द किया है। रामायण और महाभारत तो निश्चय ही संपूर्ण भरतीय वांगमय के उपजीव्य ग्रंथ रहे हैं। बौध्द, जैन साहित्य जो पालि, प्राकृत, अपभ्रंश अथवा अन्य देशज् भाषाओं में रचा गया हमारी सांस्कृतिक चेतना का अंग है। हम जाने अनजाने में बुध्द के मध्यम मार्ग के अनुयायी हैं और उसकी करुणा हमारे रक्त में प्रवाहित है। जैनों की अहिंसा संस्कार बन हमारे जीवन को पोषित करती है। साहित्य में जैन और बौध्द साहित्य विद्रोह और विरोध का साहित्य है, परंतु उसे भी भारतीय संस्कृति ने आदर पूर्वक स्वीकार किया है। भगवान बुध्द और वृषभ हमारे यहां विष्णु के अवतार स्वीकार कर लिए गए। सांस्कृतिक दृष्टि से भारत की विशिष्टता यही है कि भारतीय संस्कृति ने यहां पर विजेता बनकर आई जातियों को भी आत्मसात कर लिया और उनकी संस्कृति के सकारात्मक, जीवंत तत्वों को अपने में समेट लिया।

भारत में इस्लाम का प्रवेश एक महत्वपूर्ण घटना है। इससे पूर्व जो आक्रांता आए वे इतने संगठित और सुसंस्कृत न थे कि भारत की समृध्द परंपराओं को चुनौती दे सकते। इस्लाम नवीन चिंतन और समाज-दृष्टि से संपन्न सांस्कृतिक दृष्टि लेकर आया। इस्लाम के आने पर भारतीय संस्कृति को एक नए प्रकार की चुनौती का सामना करना पड़ा। हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'संक्षेप में चुनौती का स्वरूप सामाजिक अधिक था, धार्मिक और दार्शनिक कम।' कई कारणों से भारतीय संस्कृति में पतनशीलता आ चुकी थी और उसकी पाचन शक्ति क्षीण हो चुकी थी। पहले धक्के से एक बार लड़खड़ाने के पश्चात फिर एकाएक भक्ति आंदोलन के रूप में भारतीय संस्कृति के प्रवाह ने इस्लामी संस्कृति को भीतर तक भिगो दिया और अपनी भीतरी गंदगी को उठा कर तटों पर फेंक दिया। इस साहित्यिक सांस्कृतिक आंदोलन में से सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पुन: स्थापित हुआ। इस महान सांस्कृतिक क्रांति में संपूर्ण भारतवर्ष ने भाग लिया। शिवकुमार मिश्र के शब्दों में -

'इस आंदोलन में पहली बार राष्ट्र के एक विशेष भूभाग के निवासी तथा कोटि-कोटि साधारण जन ही शिरकत नहीं करते, समग्र राष्ट्र की शिराओं में इस आंदोलन की ऊर्जा स्पंदित होती है, एक ऐसा जबर्दस्त ज्वार उफनाता है कि उत्तार, दक्षिण, पूर्व-पश्चिम सब मिलकर एक हो जाते हैं और सब एक दूसरे को प्रेरणा देते हैं, एक दूसरे से प्रेरणा लेते हैं और मिलजुलकर भक्ति के एक ऐसे विराट नद की सृष्टि करते हैं उसे प्रवाहमान बनाते हैं, जिसमें अवगाहन कर राष्ट्र के कोटि-कोटि जनसाधारण जन सदियों से तप्त अपनी छाती शीतल करते हैं, अपनी आध्यात्मिक तृषा बुझाते हैं, एक नया आत्मविश्वास, जिंदा रहने की, आत्मसम्मान के साथ जिंदा रहने की, एक शक्ति पाते हैं।' भक्ति काव्य भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का मूर्तरूप था। हिंदी साहत्य ने इससे कबीर का सिंहनाद प्राप्त किया जिसने निर्गुण साधना और समतावादी जीवनदृष्टि को अपने काव्य में स्थापित किया। तुलसी का रामचरित मानस आदर्श राम राज्य की परिकल्पना लेकर आया। तुलसी ने क्रूर मुस्लिम राज को राक्षस राज के मिथक में बदल दिया। सूर की रागात्मक आशावादी दृष्टि जीवन में प्यार जगाने लगी और जायसी ने पद्मावत के माध्यम से भारतीय संस्कृति की गरिमा को स्वीकार किया। यह अद्भुत तथ्य है कि भयंकर संघर्षों के बीच रचा गया भक्ति साहित्य पूरी तरह असांप्रदायिक या धर्म निरपेक्ष है। यह भारतीय सांस्कृतिक चिंतन का प्रभाव है।

सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का विस्फोट पुन: पुनर्जागरण काल में देखा जा सकता है। राजा राममोहन राय जिस औपनिषदिक ज्ञान को लेकर समाज सेवा की ओर अग्रसर हुए वह शुध्द भारतीय था। स्वामी विवेकानंद ने जिस वेदांत और अद्वैतवाद के आगे पश्चिम को झुकने के लिए विवश किया वह शुध्द भारतीय-सांस्कृतिक चिंतन था। विवेकानंद 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' के प्रखरतम विचारक और अजेय योध्दा थे। उनकी धर्म साधना, उनका प्रचार, उनकी दार्शनिकता, उनकी तपस्या, उनके जीवन के सारे क्रिया-कलाप जिस स्रोत से जीवन शक्ति पाते थे वह था राष्ट्रवाद। भारत में रहकर भारतीय शिष्यों के बीच उन्होंने अपने समाज की कमियों को रेखांकित किया, रूढियों पर प्रहार किया, विवशताओं पर आंसू बहाए परंतु पश्चिम में खड़े होकर उन्होंने भारत की आध्यात्मिक श्रेष्ठता का सिंहनाद किया और भारत को धर्म-आध्यात्म के क्षेत्र में विश्व गुरु के रूप में स्थापित किया। कभी भूलकर भी भारत की बुराई विदेश में नहीं की और ऐसा करने वालों को मुहतोड़ जवाब दिया। यह कार्य किसी विरक्त संन्यासी का नहीं, कर्मठ देशभिमानी योध्दा का था जो सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की मजबूत धरती पर स्वतंत्र भारत की नींव रखना चाहता था। महर्षि अरविन्द हो या स्वामी दयानन्द या फिर शरच्चंद्र जैसा साहित्यकार सभी राष्ट्रवाद से प्रेरित थे। भारत का संपूर्ण स्वाधीनता संग्राम अमर बलिदानियों का सुलगता हुआ इतिहास और अहिंसावादियों की आंसुओं में डूबी कहानियां सभी सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का प्रत्यक्ष रूप है। भारत माता का चित्र, वंदेमातरम् का नारा और तिरंगे की आन के लिए प्राणोत्सर्ग, राष्ट्रीयता के परिचायक हैं। संपूर्ण भारतीय साहित्य में असंख्य साहित्यकारों ने अनेकानेक भाषाओं में भारतीय संस्कृति का यशोगान किया। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद पुनर्जागरण अथवा नवजागरण के युग का सत्य था, स्वाधीनता संग्राम का सत्य था इसलिए ब्रिटिश साम्राज्य पराजित हुआ, हमें आजादी मिली।

स्वाधीनता प्राप्ति के पश्चात,् स्वाधीन भारत ने अपनी सांस्कृतिक पहचान संवारने की जगह भुलाने की कोशिश की। भारतीय संस्कृति को सामूहिक या सामाजिक संस्कृति कहकर उसे कोई विशिष्ट पहचान देने से परहेज किया। 'वोट बैंक' की राजनीति हावी हुई और भारत की सांस्कृतिक पहचान को राजनीतिक स्वार्थ का अजगर निगलने लगा। साहित्यकार सत्ताा से आतंकित हुए या आकर्षित या फिर आजादी के पश्चात् दिग्भ्रमित, धीरे-धीरे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की राह छोड़ तात्कालिक यथार्थ, कंकड़-पत्थर बटोरने लगे। साहित्य क्रमश: समाज से दूर जा रहा है, उसकी प्रेरणा का स्रोत नहीं बन पा रहा। आज के साहित्यकार जातीय अस्मिता के प्रतीक न बन कर तुच्छ स्वार्थों की पहरेदारी कर रहे हैं।

इस संक्रांति बेला में राष्ट्रवादी संगठनों का चाहे वे किसी भी क्षेत्र में क्रियाशील क्यों न हों यह दायित्व बनता है कि वे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का झंडा उठायें, भारतीय संस्कृति के सर्व-समवेशी, सामाजिक रूप की रक्षा करते हुए भी उसकी मूल पहचान को न मिटने दें क्योंकि इससे अलग भारत की कोई पहचान न थी, न है और न हो सकती। वैश्वीकरण के दौर में जहां अस्मिता का संघर्ष और तेज होगा वहां पुन: सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के माध्यम से सशक्त भारत, अपराजेय भारत को गढ़ने का काम भारतीय साहित्यकार करते हैं तो साहित्य लेखन को सार्थक करेंगे।

-(लेखक हि.प्र. विश्वविद्यालय, शिमला में प्राध्यापक है।)

1 comment:

सुनील सुयाल said...

बहुत ही स्तरीय लेख है !राष्ट्र और राज्य के भेद को न समझने के कारण ही ,अनेक विचारको को तक "हिन्दू राष्ट्र "पर आपत्ति है